तमसी तम की तीव्रता
और मेघों की मित्रता!
भींगी ओढ़नी भींगे वसन
आद्रता लिए भद्रा
बिन तिथि अतिथि!
अड़ी-खड़ी खुलवाती द्वार।
द्वार खोलत री रिझावत
नेह जगावत भय भगवत।
हंसी-विहँसी भाव-भंगिमाओं से
जैसे पोर-पोर रस
री टपकावत।।
हिय-हरत उन्मादी यौवन
भूषन को भूषन परसत मानो
निसर्ग नीरा री छलकावत।।
कहूँ कैसे रे रसिक-
कुसमा की कामुकता
मर्यादाओं पर गाज गिरावत।
ता पर बदरा बरसी-बरसी
चिढ़ावत री उकसावत।।
आचार्य दिग्विजय सिंह तोमर।