Thursday, November 7, 2019

ता पर बदरा

 


तमसी तम की तीव्रता
और मेघों की मित्रता!


भींगी ओढ़नी भींगे वसन
आद्रता लिए भद्रा
बिन तिथि अतिथि!
अड़ी-खड़ी खुलवाती द्वार।


द्वार खोलत री रिझावत
नेह जगावत भय भगवत।
हंसी-विहँसी भाव-भंगिमाओं से
जैसे पोर-पोर रस
री टपकावत।।


हिय-हरत उन्मादी यौवन
भूषन को भूषन परसत मानो
निसर्ग नीरा री छलकावत।।


कहूँ कैसे रे रसिक-
कुसमा की कामुकता
मर्यादाओं पर गाज गिरावत।
ता पर बदरा बरसी-बरसी
चिढ़ावत री उकसावत।।


 आचार्य दिग्विजय सिंह तोमर।